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कविता

विनाश के पाँव

ओमप्रकाश सिंह


अब विनाश के
पाँव धरा पर
फिर से उतरे हैं।

ताक रहा
अन्याय द्वार को
आँगन भ्रष्टाचार
खिड़की खोले
झाँक रहा है
मानवता का प्यार
पृष्ठ नई
आचार-संहिता के
कुछ बिखरे हैं।

टूटे पर्वत
झुलसी नदियाँ
दर्दहीन सागर
बारूदों से
भरी सड़क पर
चटक रही गागर
आज
आणविक गुब्बारों से
दोनों हाथ भरे हैं।

थर्राती
मानवता पथ पर
आतंकित साँसें
होने लगा
रिसाव विषैला
धुआँ पी रहीं आँखें
हे मन-माधव!
महासमर में
हम सब ठहरे हैं।

 


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